सपा-बसपा गठबंधन, उत्तरप्रदेश और 2019 लोकसभा चुनाव

Share

कांग्रेस में नेतृत्व भले ही बदला हो मगर अहंकार जस का तस है। पार्टी के नेताओं को समझ लेना चाहिए कि अब राष्ट्रीय और प्रादेशिक कुछ नहीं होता। चरण सिंह और देवेगौड़ा जैसे स्थानीय समझे जानेवाले नेताओं ने दिखाया है कि उनमें भी देश के सबसे बड़े पद को साध लेने का हुनर था, वो भी इस तथ्य के बावजूद कि उनके समर्थक और वोटर इस वृहद राष्ट्र के छोटे से कोने भर में थे।यूपी में दो सबसे बड़ी पार्टियों के सामने कांग्रेस की हैसियत वाकई तीसरी विपक्षी पार्टी से अधिक कुछ नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव में यूपी के वोटर्स में से 22% ने समाजवादी पार्टी, 20% ने बसपा और 7.5% ने कांग्रेस को वोट दिया था।
कम से कम यूपी में बीजेपी का मुकाबला करने के लिए लोग कांग्रेस को चुनना छोड़ चुके हैं। यहां मुलायम के बाद अखिलेश या मायावती ही नेता हैं। ये चीज़ गुलाम नबी आज़ाद या राज बब्बर को समझ नहीं आ रही या शायद अपने टिकटार्थियों को संतुष्ट करना उन्हें जीत से ज्यादा अहम लग रहा है। सच ये है कि यूपी में कांग्रेस के पास एक अदद नेता नहीं है। देश में भले राहुल गांधी ही मोदी को चुनौती देते हों मगर यूपी की स्थिति अलग है। सलाह ये है कि खुद के राष्ट्रीय पार्टी होने का अहंकार कांग्रेस को त्यागना होगा तभी वो बाकी दलों को साथ लेकर चल सकती है। यहां तो शिवसेना से लेकर आरएलएसपी जैसे दल मोदी को भाव नहीं दे रहे, फिर अभी राहुल के पास तो उन्हें देने के लिए कुछ है ही नहीं। अगर बीजेपी के खिलाफ सबको एक छतरी के नीचे लाने में कांग्रेस अपने स्वार्थ को छोड़ नहीं सकती तो महागठबंधन की सबसे बड़ी खलनायक तो वो खुद है।
उधर समाजवादी पार्टी और बसपा पहले भी बीजेपी के खिलाफ एक हो चुके हैं, और अब फिर एक होने के लिए उनके पास यही आधार है। अरुण जेटली का कहना कि ये बेमेल गठबंधन है क्योंकि उन दोनों का वोट बैंक तक एकदम अलग है बिल्कुल अजीबोगरीब दलील है। वो शायद पीडीपी से अपने गठजोड़ को ज़रूरत से ज़्यादा जल्दी भुला चुके हैं। अखिलेश और मायावती का गठबंधन सबसे ज़्यादा सरल, फिट, ज़रूरत के हिसाब से सटीक है। पूरे देश में छोटे दल बीजेपी और कांग्रेस से अलग तीसरा मोर्चा बनाते हैं, यहां दोनों ने मिलकर कांग्रेस को तीसरा मोर्चा बनाने को विवश कर दिया है। राहुल गांधी को भी समझना पड़ेगा कि भले ही कांग्रेस में गांधियों के लिए शीर्ष पद रिज़र्व हों पर गठबंधनों में ऐसी व्यवस्थाएं नहीं होतीं। यूं भी क्षेत्रीय माने जानेवाले दल अपने क्षेत्रों की उम्मीदों पर ज़्यादा खरे उतरते हैं। लोगों का भरोसा इसीलिए इन दलों में बढ़ा भी है।
कांग्रेस अगर गलतियां ना करतीं तो डीएमके, टीएमसी, एनसीपी जैसे दलों का ना प्रादुर्भाव होता और ना वो जीत के इतिहास रचते। वक्त आ चुका है जब कांग्रेस को इनका सम्मान करना सीखना चाहिए। कम से कम नए नेतृत्व को तो ये सबक जल्दी सीख लेना चाहिए वरना अगर गठजोड़ ही करना है तो समाजवादी पार्टी या बीएसपी के लिए मोदी ही क्या बुरा विकल्प है, या फिर तीसरा मोर्चा क्यों नहीं खड़ा हो सकता।