क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद, इस वजह से बदल देते थे अपना ठिकाना

Share

चंद्रशेखर आजाद एक ऐसे क्रांतिकारी जो मंच बोले तो हजारों युवा अपनी जान लुटने को हाजिर हो जाते थे। भारत में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो चंद्रशेखर आजाद को आजादी का हीरो न मानता हो। भारत में लोग आज भी इस बता पर गर्व करते हैं कि हमारे देश में चंद्रशेखर आजाद जैसे महान क्रांतिकारी पैदा हुए। भारत की मिट्टी उनका ये कर्ज कभी नहीं भूलेगी।

23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश के भाबर गांव में जन्मे आजाद भारतीय आधुनिक इतिहास के ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें भारत और भारतवासी कभी नहीं भुला सकते। आज हम चंद्रशेखर आज के बारे में कुछ ऐसे किस्से बताने जा रहे हैं जो शायद ही आपने कभी सुने होंगे..

तिवारी से कैसे बने आजाद

चंद्रशेखर का असली नाम चंद्रशेखर तिवारी था, लेकिन एक घटना के बाद वो आजाद के नाम से इतने विख्यात हुए कि उन्होंने अपना नाम चंद्रशेखर आजाद ही रख लिया। दरअसल, 1920 में गांधी जी के आवाह्न पर असहयोग आंदोलन की शुरुआत की गई। जिसमें चंद्रशेखर आजाद ने भी भाग लिया। इस समय चंद्रशेखर की उम्र करीब 14 साल ही थी। तब उन्हें अंग्रेजी सरकार ने पहली बार गिरफ्तार किया था। और जज के सामने पेशी के दौरान जब उनका नाम पूछा गया, तो उन्होंने पूरी दृढ़ता भरी आवाज में उत्तर दिया आजाद। इसके बाद जब उन्होंने अपने पिता का नाम पूछे जाने पर उसी आवाज में जवाब दिया “स्वतंत्रता”, और पता पूछने पर बोले जेल।

आजाद के इन जवाबों को सुनकर जज इतना तिलमिला गया कि उसने चंद्रशेखर को सरेआम 15 कोड़े लगाने की सजा सुना दी। लेकिन यह बात जल्दी हर तरफ फैल गई। और लोग उन्हें चन्द्रशेखर आजाद कह कर पुकारने लगे। बस फिर क्या था, उन्होंने अपना नाम चंद्रशेखर तिवारी से बदल कर चंद्रशेखर आजाद रख लिया।

काकोरी का वो कांड जिसमें सिर्फ आजाद बचकर निकल पाए

चंद्रशेखर का नाम आते ही सबसे बड़ी घटना काकोरी कांड का जिक्र जरूर आता है। काकोरी में चंद्रशेखर और उनके कुछ साथियों ने मिलकर क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए पैसा इकट्ठा करने के इरादे से काकोरी में सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई थी। योजना के अनुसार रामप्रसाद बिस्मिल, केशव चक्रवर्ती, मुरारी लाल, मुकुन्दी लाल, बनवारी लाल, मन्मथ नाथ गुप्त और चंद्रशेखर आज़ाद उसी ट्रेन के तीसरे दर्जे के डिब्बे में सवार हो गए।

इनमें से कुछ को गार्ड और ड्राइवर को पकड़ना था। जबकि अन्य लोगों को गाड़ी के दोनों ओर पहरा देने और खज़ाने को लूटने की ज़िम्मेदारी दी गई थी। अंधेरा होते ही योजना को अंजाम दिया गया। खजाने की तिजोरी काफी मजबूत थी। लेकिन अशफ़ाकउल्ला के हथौड़ै की मार से अंग्रेजों की मज़बूत तिजोरी टूट गई। तिजोरी में काफी ज्यादा मात्रा में पैसा था। इसलिए उनको गठरी में बांधकर अधिकतर क्राँतिकारी पैदल ही लखनऊ के लिए निकल गए।

लखनऊ में घुसते ही खजाने की सुरक्षित स्थान पर रखकर सभी अपने तय ठिकानों पर रात गुजारने चले गए। पर चंद्रशेखर आजाद उस रात एक पार्क में ही बैठे रहे। इस लूट के बाद अंग्रेजों का गुप्तचर विभाग एक्टिव हो गया। उन सभी पर नज़र रखी जाने लगी जिन पर क्रांतिकारी होने का शक था। l इस घटना के 47 दिन बाद 26 सितंबर, 1925 को उत्तर प्रदेश की कई जगहों पर छापेमारी हुई और पकड़े गए चार लोगों को फ़ाँसी, चार को कालापानी और 17 लोगों को उम्र कैद में की सज़ा सुनाई गई। परंतु अंग्रेज इस कांड में शामिल चंद्रशेखर आजाद को कभी नहीं पकड़ पाए।

इस वजह से बदल देते थे अपना पता ठिकाना

आज़ाद की एक आदत थी कि अगर उनके साथ का कोई भी ऐसा आदमी पकड़ा जाता जो उनके रहने का स्थान जनता हो, ऐसी स्तिथि में आज़ाद अपने रहने की जगह फौरन बदल देते थे। और अधिक खतरा होने पर अक्सर वो अपना शहर ही बदल दिया करते थे। शायद इसी कारण अनेक लोगों द्वारा मुखबिरी होने के बावजूद भी पुलिस बरसों तक उनको नहीं ढूंढ़ पाई।

“आजाद हैं आजाद रहेंगे” के नारे को याद करते हुए दी प्राणों की आहुति

चंद्रशेखर आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में सुखदेव और अपने एक अन्य और मित्र के साथ बैठे कोई योजना बना रहे थे। अचानक अंग्रेज पुलिसकर्मियों ने उनपर हमला कर दिया। आजाद ने अपने साथियों को बचाने के लिए अंग्रेजों पर दनादन गोलियां चलाईं, ताकि उनके साथी सुखदेव बचकर निकल पाएं। दूसरी तरफ पुलिस की गोलियां भी बराबर चलती रहीं, इस गोलीबारी में आज़ाद की जांघ में गोली लग गई और वो घायल हो गए। वह 20 मिनट तक अंग्रजों का डट कर लड़ते रहे।

अंत में उन्होंने अपने नारे “आजाद हैं आजाद रहेंगे” के नारे को याद किया और पिस्तौल में बची आखिरी गोली से खुद के प्राणों की आहुति दे दी।

चंद्रशेखर की मौत के बाद इंग्लैंड भेज दी गई उनकी पिस्तौल

विश्वनाथ वैशम्पायन ने इस घटना का जिक्र करते हुए अपनी किताब में लिखा है कि ‘सीआईडी सुपरिंटेंडेंट ने यह बात मानी की आजाद जैसा निशानेबाज उन्होंने काफी कम देखे हैं। ख़ासकर उस समय जब उन पर तीन तरफ़ से गोलियाँ चलाई जा रही हों। अगर सबसे पहली गोली आजाद की जाँघ में ना लगी होती, तो पुलिस के लिए काफी मुश्किल खड़ी हो जाती क्योंकि नॉट बावर का हाथ पहले ही बेकार हो चुका था।’

नॉट बावर जिस दिन रिटायर हुए, उस दिन अंग्रेजी सरकार ने उन्हें आजाद की पिस्तौल उपहार में दे दी और इसे वो अपने साथ इंग्लैंड ले गए। मगर इलाहाबाद के कमिश्नर मुस्तफ़ी ने बावर को पिस्तौल लौटाने के लिए पत्र लिखा, लेकिन बावर ने इस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया।

फिर लंदन में भारतीय उच्चायोग द्वारा लगातर कई कोशिश के बाद बावर इस शर्त पर पिस्तौल देने के लिए राजी हो गए कि भारत सरकार उनसे से लिखित अनुरोध करे। उनकी शर्त मान ली गई, और 1972 में आज़ाद की कोल्ट पिस्तौल भारत लौटी। 27 फ़रवरी, 1973 को शचींद्रनाथ बख़्शी की अध्यक्षता में एक समारोह के बाद उसे लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित रख दिया गया।