कर्ज़माफ़ी भीख नहीं किसानों का हक़ है

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मिडिल क्लास को बड़ा गुरूर है टैक्स देने का. चले तो आख़िरी चवन्नी बचाने लेने वाला यह क्लास किसानों की कर्ज़माफ़ी को लेकर बहुत उछल रहा है मानो उसकी तनख्वाह से पैसा काट के दिया गया है. उसे लगता है देश उसी के पैसे से चलता है तो दुनिया की सारी सुविधा उसी को मिलनी चाहिए. उछल तो वे पूंजीपति भी रहे हैं जो सब्सिडी के बिना दो दिन न टिकें बाज़ार में. वैसे तो किसान भी जब बाज़ार में जाता है तो बिस्कुट से लेकर खाद तक जो खरीदता है सब पर टैक्स देता है लेकिन अभी उसे जाने दीजिये.
पहली बात तो यह कि टैक्स अर्निंग का सबसे बड़ा हिस्सा उन बड़े शहरों की अधिरचना पर ही खर्च होता है जिनमें यह मिडल क्लास रहता है. सड़कें, पार्क, मेट्रो, बिजली, लाइब्रेरी, यूनिवर्सिटी, कॉलेज, सैनिटेशन सबका उपभोग वही करता है. भारी सब्सिडी वाले ईंधन से चलने वाला जहाज़ हो या लागत की तुलना में सस्ती उच्च श्रेणी ट्रेनों की यात्रा वही करता है. उसकी सुरक्षा के लिए पुलिस थाने पर खर्च होता है. जहाँ वह काम करता है वहाँ से मोटी तनख्वाह लेता है और जीवन के अनेक क्षेत्रों में सब्सिडी लेता है.
किसान का जीवन देखिये. आधुनिक अधिरचनाओं से वह वंचित है, सड़कें टूटी फूटी हैं गाँवों की, सैनिटेशन जैसी चीज़ नहीं, पीने का साफ़ पानी नहीं. स्कूल न होने जैसे, हस्पताल की बात ही बेकार. सुरक्षा का जो हाल है वह न पूछिए तो बेहतर. बसें जानवरों को ढोने वाली. तुर्रा यह कि वह जो फ़सल उपजाता है उसका मूल्य ख़ुद नहीं तय करता बल्कि इसी सर्वग्रासी मिडल क्लास के हिसाब से तय किया जाता है. आख़िर प्याज़ या शक्कर का भाव बढ़ने पर सरकार गिर सकती है, कार का बढ़े तो कोई बात नहीं.
कोई इसान क़र्ज़ नहीं लेना चाहता. खेती घाटे में जाती है क्योंकि उपज का सही मूल्य नहीं मिलता उसे, बीमा की व्यवस्था में गड़बड़ी होती है. बेहद सब्सिडाइज्ड अंतर्राष्ट्रीय उत्पाद पर सीमा शुल्क की छूट देकर उससे हमारे किसान का कम्पटीशन कराया जाता है तो विदर्भ जैसे हालात पैदा होते हैं और चाँदी का कटोरा खून का कटोरा बन जाता है. इसलिए अगर की गई क़र्ज़माफ़ी तो यह एहसान नहीं है. उनका हक़ है.
बाक़ी लोकतांत्रिक समाज में टैक्स मूल्य नहीं हैं सुविधाओं के बल्कि राष्ट्र के निर्माण में भागीदारी है और किसान भी राष्ट्र का हिस्सा हैं.