3 जून को गांधीजी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का किया था आवाह्न

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भारत में हिंदी भाषा का एक लंबा इतिहास रहा है l हिंदी भाषा को समृद्ध और व्यापक बनाने में कई साहित्यकारों व राजनेताओं ने भरपूर प्रयास किए हैं। जिनमें महात्मा गांधी कान नाम सबसे ऊपर आता है। गांधी जी हिंदी भाषा को राजनैतिक तरीके से देश के कोने-कोने में पहुंचाया। हिन्दी भाषा के विकास और व्यापकता के लिहाज से आज का दिन काफी महत्वपूर्ण है। आज 3 जून के दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इस अधिवेशन की अध्यक्षता भी कर रहे थे, और गांधी जी ने इसी अधिवेशन हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का आह्वान किया था। इतना ही नहीं, गांधी जी ने दक्षिण भारत में भी हिन्दी भाषा का प्रचार की भी शुरुआत भी की।

हिंदी- उर्दू और राष्ट्रीय एकता पर दिया था जबरदस्त भाषण

1918 में आज ही के दिन इंदौर में एक अधिवेशन का आयोजन किया गया था, इसका आयोजन इंदौर के तत्कालीन विस्को पार्क (नेहरू पार्क) में हुआ था। हिंदी को गांधी ने देश को जोड़ने के सूत्र के रूप में प्रयोग किया गया। इस सम्मेलन में महत्मा गांधी जी ने हिंदी भाषा और देश की एकता को लेकर जबरदस्त भाषण दिया था। इस भाषण के कुछ अंश इस तरह हैं- “हिंदू-मुसलमानों के बीच में जो भेद किया जाता है वह बनावटी है। ऐसी ही कृत्रिमता हिंदी और उर्दू के बीच फर्क करने की भी है। हिंदुओं की बोली से फारसी शब्दों का सर्वथा त्याग और मुसलमानों की आपसी बातचीत को संस्कृत से पूरी तरह मुक्त करना अनावश्यक है। दोनों का स्वाभाविक संगम गंगा-यमुना के संगम सा शोभित और अचल रहेगा। मुझे उम्मीद है कि हम हिंदी-उर्दू के झगड़े में पड़कर अपनी शक्ति क्षीण नहीं करेंगे।”

साथ गांधी ने आगे कहा कि आज भी हिंदी से स्पर्धा करने वाली कोई दूसरी भाषा नहीं है। हिंदी-उर्दू का झगड़ा छोड़ने से राष्ट्रीय भाषा का सवाल सरल हो जाता है। इसके लिए एक पक्ष को थोड़े-बहुत फारसी के शब्द और दूसरे को संस्कृत के कुछ शब्द सीखने होंगे। ऐसे में हिंदी की शक्ति कम होने के बजाय बढ़ेगी और हिंदू-मुस्लिम एकता भी स्थापित होगी। खासतौर पर अंग्रेजी भाषा का मोह दूर करने के लिए इतना परिश्रम तो हमें करना ही होगा। 1918 में आयोजित हुए इस सम्मेलन में हिन्दी साहित्य समिति सम्मेलन के अधिवेशन में कई बड़े कवियों, लेखकों ने भाग लिया था।

इस सम्मेलन की अध्यक्षता गांधी जी ही कर रहे थे। हिंदी को उन्होंने भारत की संपर्क भाषा बताते हुए उसे भारत की राष्ट्र भाषा बनाने का आवाह्न किया। सम्मेलन में उपस्थित अधिकतर भाषा विद्वानों ने इसका समर्थन किया और सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव अधिवेशन में पारित कर हिंदी भाषा को देश की राष्ट्रभाषा बनाने की ओर महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया।

पहली बार बने गए थे भाषीय राजदूत

एक मीडिया वेबसाइट के हवाले से हिन्दी साहित्य समिति के प्रचार मंत्री अरविंद ओझा बताते हैं -उस अधिवेशन में भी ये सवाल उठा था कि देश के अधिकतर लोग हिंदी भाषा समझते और बोलते हैं, लेकिन आज भी दक्षिण भारत में हिंदी भाषा की स्वीकारिता बहुत ही कम है। इस पर गांधी जी ने कहा कि हमें हिंदी किसी पर थोपनी नहीं है दक्षिण भारत में हिन्दी की स्वीकार्यता बढाने का कार्य हिन्दी सेवियों को करना पडेगा। और इस इस बात का जिम्मा उन्होंने अपने बेटे को सौंपा था। हिन्दी साहित्य समिति और हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में महात्मा गांधी ने दक्षिण में भी हिंदी भाषा के प्रचार के लिए अपने बेटे देवदत्त गांधी के अलावा चार और लोगों को भाषीय राजदूत बनाया था। ऐसा पहली बार हो रहा था कि किसी को भाषीय राजदूत बनाया गया हो।

अधिवेशन में इकट्ठा हुए धन से बनाई हैं प्रचार समितियां

इंदौर के इस कार्यक्रम में गांधी जी और इस सम्मेलन में उपस्थित सभी भाषाविदों ने इस सम्मेलन में धन एकत्रित कर प्रचार समितियों का भी गठन किया, इस धन से वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति और मद्रास (चैन्नई में हिन्दी प्रचार सभा नामक संस्थाओं की स्थापना की गई । जैसा इन समितियों के नाम से ही स्पष्ट है कि इनका काम देश में हिंदी के प्रति लोगों की जागरूकता बढ़ाना और इसके प्रचार पर काम करना था ।

अंग्रेजी की जड़ पूजा से बचने की बात कहते थे गांधी

गांधी जी और हिंदी भाषा के संबंध में ‘श्री मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति” के प्रधानमंत्री प्रो. सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी एक अखबार के हवाले से कहते हैं कि ‘अंग्रेजी साहित्य भंडार से मैंने भी बहुत से रत्नों का उपयोग किया है। इस भाषा के माध्यम से हमें विज्ञान का खूब ज्ञान भी लेना है। उपयोगिता के अनुसार इसे उचित स्थान भी देना है लेकिन इसकी जड़-पूजा से बचना है। ये कभी हमारी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन सकती। इसका बोझ जनता के ऊपर डालने से हमें तरह-तरह के नुकसान झेलने पड़ रहे हैं।