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मीट बैन ज़रूरी या शराबबंदी ?

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आये दिन उत्तरप्रदेश से लेकर राजस्थान तक शराब की दुकानें बंद कराने के लिए सड़कों पर निकली महिलाओं और बच्चों के फोटोज़ और ख़बरें पढ़ने को मिलती हैं, इन्टरनेट पर हज़ारों ऐसे फोटो आपको मिल जायेंगे जहाँ मोहल्ले के लोग, महिलायें बच्चे बूढ़े एकजुट होकर शराब की दुकानों को ज़बरदस्ती बंद करते नज़र आएंगे या उन्हें हटाने के लिए प्रबल विरोध करते नज़र आएंगे !

मगर इतनी ही संख्या में कभी मोहल्ले वालों को महिलाओं को किसी बूचड़खाने या गोश्त की दूकान हटाने या उसे बंद कराने सड़कों पर निकलते नहीं देखा, इक्का दुक्का ख़बरें ज़रूर आती हैं, मगर जहाँ शराब विरोध की बात है, गोश्त की दुकानों या छोटे मोटे बूचड़खानों के विरोध से हज़ार गुना ज़्यादा हैं !
यही शराब है जिसे पीकर या जिसकी लत की वजह से कितने ही घर बर्बाद हुए, कितने लोग एडिक्ट हुए, जान से हाथ धोना पड़ा, ज़हरीली या अवैध शराब से मौतों का आंकड़ा भी भयावह है, मगर बीफ खाकर शायद ही कोई मरा हो, या कोई घर तबाह हुआ हो !

शराब और बीफ पर सरकारों के दोहरे आचरण पर संदेह होना लाज़मी है, जहाँ बड़े और वैध बूचड़खानों के मालिकों से जमकर राजनैतिक चन्दा लिया जाता हो, वहां छोटे विक्रेताओं पर बैन के बहाने क़ानून बनाकर अन्याय करना है, वहीँ दूसरी ओर शराब माफिया और सरकारी गठबंधन किस्से छुपा है !

सरकारों की प्रतिबद्धता और इच्छा शक्ति पर ही निर्भर करता है कि वो किसे प्राथमिकता देती है, किसकी चिंता है, और किसकी नहीं, नितीश जी ने बिहार में शराबबंदी लागू कर ही डाली, उनके लिए शराब प्रतिबंधित करना बीफ बैन से अधिक महत्वपूर्ण था, उनमें प्रतिबद्धता थी जो अब शायद कहीं और नज़र नहीं आती, हाँ बीफ के लिए उम्रकैद से लेकर फांसी तक के लिए आस्तीनें चढ़ाते सियासी तुर्रमखां ज़रूर नज़र आ जाते हैं !