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जानें किसने शुरू किया था रुपये का चलन और ग्रांड ट्रंक रोड का निर्माण

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शेरशाह सूरी इतिहास के पन्नों में दर्ज वह नाम है, जिसे उसकी वीरता, अदम्य साहस और परिश्रम के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर क़ब्ज़ा करने के लिए जाना जाता है. शेरशाह सूरी ने चौसा की लड़ाई में हुमायूं जैसे शासक को न सिर्फ धूल चटाई बल्कि, आगे चलकर उसे मैदान छोड़कर भागने के लिए मजबूर कर दिया था. शेर खां की उपाधि पाने वाले इस शासक के इरादे कितने फौलादी रहे होंगे, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दक्षिण बिहार के सूबेदार बहार खां लोहानी के आदेश पर उसने शेर के जबड़े को फाड़कर दो भागोंं में बांट दिया था.
शेरशाह सूरी की मृत्यु आज ही के दिन 22 मई 1545 को कालिंजर, बुंदेलखंड में हुई थी. उनका जन्म 1472 में सासाराम शहर में हुआ था, जो अब बिहार के रोहतास जिले में है. उनका असली नाम फ़रीद खाँ था पर वो शेरशाह के रूप में जाने जाते थे क्योंकि उन्होंने कम उम्र में अकेले ही एक शेर को मारा था. उनका कुलनाम ‘सूरी’ उनके गृहनगर “सुर” से लिया गया था. उनके दादा इब्राहिम खान सूरी नारनौल क्षेत्र में एक जागीरदार थे जो उस समय के दिल्ली के शासकों का प्रतिनिधित्व करते थे. उनके पिता पंजाब में एक अफगान रईस ज़माल खान की सेवा में थे. शेरशाह के पिता की दो पत्नियाँ और आठ बच्चे थे.
शेरशाह को बचपन के दिनो में उसकी सौतेली माँ बहुत सताती थी तो उन्होंने घर छोड़ कर जौनपुर में पढ़ाई की. पढ़ाई पूरी कर शेरशाह 1522 में ज़माल खान की सेवा में चले गए. पर उनकी सौतेली माँ को ये पसंद नहीं आया. इसलिये उन्होंने ज़माल खान की सेवा छोड़ दी और बिहार के स्वघोषित स्वतंत्र शासक बहार खान नुहानी के दरबार में चले गए. अपने पिता की मृत्यु के बाद फ़रीद ने अपने पैतृक ज़ागीर पर कब्ज़ा कर लिया. कालान्तर में इसी जागीर के लिए शेरखां तथा उसके सौतेले भाई सुलेमान के बीच विवाद हुआ.
बहार खान के दरबार मे वो जल्द ही उनके सहायक नियुक्त हो गए और बहार खान के नाबालिग बेटे के शिक्षक और गुरू बन गए. लेकिन कुछ वर्षों में शेरशाह ने बहार खान का विश्वास खो दिया. इसलिये वो 1527-28 में बाबर के शिविर में शामिल हो गए. बहार खान की मौत पर, शेरशाह नाबालिग राजकुमार के संरक्षक और बिहार के राज्यपाल के रूप में लौट आये . बिहार का राज्यपाल बनने के बाद उन्होंने प्रशासन का पुनर्गठन शुरू किया और बिहार के मान्यता प्राप्त शासक बन गये.
1537 में बंगाल पर एक अचानक हमले में शेरशाह ने उसके बड़े क्षेत्र पर कब्जा कर लिया हालांकि वो हुमायूँ के बलों के साथ सीधे टकराव से बचते रहे.

द्वितीय अफ़ग़ान साम्राज्य

अभी तक शेरशाह अपने आप को मुगल सम्राटों का प्रतिनिधि ही बताता था पर उनकी चाहत अब अपना साम्राज्य स्थापित करने की थी. शेरशाह की बढ़ती हुई ताकत को देख आखिरकार मुगल और अफ़ग़ान सेनाओं की जून 1539 में बक्सर के मैदानों पर भिड़ंत हुई. मुगल सेनाओं को भारी हार का सामना करना पड़ा. इस जीत ने शेरशाह का सम्राज्य पूर्व में असम की पहाड़ियों से लेकर पश्चिम में कन्नौज तक बढ़ा दिया. अब अपने साम्राज्य को वैध बनाने के लिये उन्होंने अपने नाम के सिक्कों को चलाने का आदेश दिया. यह मुगल सम्राट हुमायूँ को खुली चुनौती थी.
अगले साल हुमायूँ ने खोये हुये क्षेत्रो पर कब्ज़ा वापिस पाने के लिये शेरशाह की सेना पर फिर हमला किया, इस बार कन्नौज पर. हतोत्साहित और बुरी तरह से प्रशिक्षित हुमायूँ की सेना 17 मई 1540 शेरशाह की सेना से हार गयी. इस हार ने बाबर द्वारा बनाये गये मुगल साम्राज्य का अंत कर दिया और उत्तर भारत पर सूरी साम्राज्य की शुरुआत की जो भारत में दूसरा पठान साम्राज्य था लोधी साम्राज्य के बाद.
इस ऐतिहासिक युद्व को चौसा के युद्ध के नाम से जाना जाता है. इस जीत के बाद सूरी को एक और नाम से नवाज़ा गया वह था ‘फरीद-अल-दिन शेर शाह’.

उपलब्धियां

शेरशाह सूरी एक कुशल सैन्य नेता के साथ-साथ योग्य प्रशासक भी थे. उनके द्वारा जो नागरिक और प्रशासनिक संरचना बनाई गयी वो आगे जाकर मुगल सम्राट अकबर ने इस्तेमाल और विकसित की. शेरशाह की कुछ मुख्य उपलब्धियाँ अथवा सुधार इस प्रकार है.

  • तीन धातुओं की सिक्का प्रणाली शेरशाह द्वारा शुरू की गई थी.
  • पहला रुपया शेरशाह के शासन में जारी हुआ था जो आज के रुपया का अग्रदूत है.रुपया आज पाकिस्तान, भारत, नेपाल, श्रीलंका, इंडोनेशिया, मॉरीशस, मालदीव, सेशेल्स में राष्ट्रीय मुद्रा के रूप में प्रयोग किया जाता है.
  • ग्रैंड ट्रंक रोड का निर्माण जो उस समय सड़क-ए-आज़म या सड़क बादशाही के नाम से जानी जाती थी.उनकी यह रोड बांग्लादेश से होती हुई दिल्ली और वहां से काबुल तक होकर जाती थी.
  • डाक प्रणाली का विकास जिसका इस्तेमाल व्यापारी भी कर सकते थे.यह व्यापार और व्यवसाय के संचार के लिए यानी गैर राज्य प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया जाने वाली डाक व्यवस्था का पहला ज्ञात रिकॉर्ड है.
  • शेर शाह ने अपने साम्राज्य को 47 हिस्सों में बांट दिया था, ताकि वह सुचारू रूप से काम कर सकें. इन 47 हिस्सों को सूरी ने सरकार का नाम दिया था. यह 47 सरकार फिर छोटे जिलों में बांटी गयी, जिन्हें परगना कहा गया. हर सरकार को दो लोग संभालते थे, जिनमें एक सेना अध्यक्ष होता था और दूसरा कानून का रक्षक.
  • शेरशाह सूरी एक अच्छे वास्तुकार भी थे. अपने जीवनकाल में उन्होंने कई बार वास्तुकला का काम किया. रोहतास किले का निर्माण और दिल्ली में स्थित पुराना किला का नए तरीके से निर्माण करने में भी सूरी का हाथ था.
  • शेरशाह सूरी ने  हिमायूं दिना पनाह शहर को विकसित कर उसका नाम शेरगढ़ रखा और पाटलीपुत्र का नाम पटना रखा.

1545 में कालिंजर फतह के दौरान शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गई. यहां बारूद में विस्फोट हो गया. इस हादसे में शेरशाह सूरी अपनी अंतिम सांसे ले रहे थे, पर उनका जज्बा चरम पर था. वह घायल हालत में भी दुश्मन का मुकाबला करते रहे. कहानियां बताती हैं कि जाते-जाते उन्होंने कालिंजर के किले पर अपनी जीत का यशगान लिख दिया था.