गवर्नेंस और जनहित – क्या दोनों चीज़ें मोदी सरकार की प्राथमिकता में नही हैं

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किसी भी सरकार की प्राथमिकताएं तय होती है, सत्तारूढ़ दल के राजनैतिक दर्शन और उसकी आर्थिक नीतियों से। राजनीतिक दर्शन उस दल की आत्मा होती है औऱ आर्थिक नीतियां, इस बात का प्रतिविम्ब की वह दल या उस दल की सरकार आर्थिक रूप से कैसा देश चाहती है। भाजपा की कभी भी कोई आर्थिक नीति रही ही नही है। इस मुद्दे पर भाजपा का बड़ा से बड़ा नेता और सिद्धांतकार भी बात करने से बचता है। वह पूंजीवाद की तरफ झुकाव की बात करता है, निजीकरण की बात करता है, सबका साथ सबका विकास की बात करता है, पर यह सब होगा कैसे, किसी नीति के अंतर्गत होगा या फिर एक आदमी जो सरकार का मुखिया है उसकी ही मर्जी और सनक के अनुसार होगा, यह वह नहीं बतला पाता है।

इसीलिए पिछके 7 साल में जो आर्थिक नीतियां अपनाई गई हैं वह अनावश्यक और बिना सोचे समझे अपनाई गयी हैं, और उन नीतियों का सारा लब्बोलुआब यही है कि सब कुछ सार्वजनिक क्षेत्र से हटा कर निजी क्षेत्रों को दे दिया जाय। निजीकरण भी एक नीति के आधीन होता है न कि एक बिगडैल वारिस की तरह कि औने पौने दामों पर सब कुछ बेच दिया जाय। फिलहाल सरकार की यही नीति है। स्पष्ट और जनविरोधी सोच तथा नीतियों के अभाव में सरकार अपनी प्राथमिकताएं तय ही नहीं कर पा रही है। इसी लिये जब नेता चुनाव में जनता के सामने रूबरू होते हैं तो, वे जनहित के मुद्दों को छोड़ कर वे मुद्दे उठाते हैं जो समाज मे बिखराव पैदा करते हैं, जिससे, समाज धर्म और जाति के आधार पर बंटने लगता है।

आज जब कोरोना आपदा ने देश को बुरी तरह से संक्रमित कर रखा है तो, सरकार उन्हें राहत देने में इसलिए भी असफल सिद्ध हुई कि वे इस विंदु पर सोच भी नहीं सके थे कि जब स्वास्थ्य जैसी आपदा सामने आएगी तो वे उससे कैसे निपटेंगे। नीति और नीयत के इसी अभाव के कारण, एक साल की अवधि मिलने पर भी सरकार कोरोना की दूसरी लहर से निपटने के लिये उचित प्रबंध नही कर सकी। और जब आज जी 7 के सम्मेलन में भाग लेने, विदेशमंत्री एस जयशंकर लंदन गए, और उनसे जब यह पूछा गया कि, आखिर सरकार इस आपदा का मुकाबला कैसे नहीं कर पा रही है तो उन्होंने बीजेपी की चिर परिचित, ‘नेहरू जिम्मेदार’ शैली का अनुपालन करते हुए कहा कि यह 75 सालों हुयी इंफ्रास्ट्रक्चर की अनदेखी का परिणाम है। जबकि वास्तविकता यह है कि जो भी हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर देश मे पीएचसी से लेकर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थानों तक देश मे है वह इन्ही 70 सालों का ही विकास है।

प्राथमिकता क्या है इसकी एक और बानगी का उदाहरण है दिल्ली में नयी संसद का निर्माण कार्य जिसे सेंट्रल विस्टा के नाम से जाना जाता है। दिल्ली में बन रहा यह ताबूतनुमा सेंट्रल विस्टा सरकार द्वारा किया जा रहा एक अनावश्यक और अनुपयोगी व्यय है। इसका पूरा बजट ₹ 20 हजार करोड़ का बताया जा रहा है, पर वास्तविक व्यय कितना है यह तो सरकार को ही पता होगा। महामारी की आपदा को देखते हुए, क्या यह धनराशि कोरोना आपदा से लड़ने और वैक्सीनशन के लिये डाइवर्ट नहीं कर दी जानी चाहिए ?

जब तक देश इस आपदा से उबर नहीं जाता और हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर कुछ बेहतर नहीं हो जाता है, तब तक, इस तरह के अनावश्यक और अनुपयोगी खर्चो का फैसला, एक लोकतांत्रिक राज्य की सरकार द्वारा नही बल्कि, एक असंवेदनशील और निर्मम शासक द्वारा ही लिए जा सकते हैं। लोकतंत्र में ऐसे निर्मम और अक्षम शासक का कोई स्थान नहीं है। भाजपा को चाहिए कि वह अपना नया नेता चुने और नरेंद्र मोदी को अब आराम दे। अठारह अठारह घन्टे बिना अवकाश लिए काम करना, उनकी सेहत के लिये हानिकारक है या नही, यह मुझे नहीं मालूम पर उनके इस ‘परिश्रम’ से देश की प्राणवायु पर ही संकट आ पड़ा है।
कोरोना आपदा के लगातार बढ़ते संक्रमण और सैकड़ों लोगों द्वारा रोज जान गंवाने की दुःखदायी खबरों के बीच, सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के निर्माण पर दुनियाभर के देशों और अखबारों में बेहद प्रतिकूल प्रतिक्रिया हो रही है। प्रधानमंत्री की निजी किरकिरी हो रही है। कल तक मिथ्या प्रचारतंत्र के आधार पर गढ़ी गयी, एक स्टेट्समैन सरीखी छवि, एक खलनायक की छवि में बदल रही है। घरेलू और विदेश नीति दोनो ही मोर्चो पर भारत की विफलता की चर्चा हो रही है, उस पर संपादकीय लिखे जा रहें हैं, कार्टून बन रहे हैं और एक मजबूत नेतृत्व का जो मायाजाल था वह तार तार हो गया है।

4 लाख से अधिक संक्रमण रोज और अब तक, गैर सरकारी अनुमान के अनुसार, 20 लाख से अधिक सम्भावित मौतों के बाद भी यह तमाशा जारी है, यह न केवल लोकतंत्र का बल्कि लोक का अपमान है। देशभर में लोग ऑक्सीजन, दवाओं, बेड और तमाम अस्पतालों में बदइंतजामी से रोज मर रहे हैं और, सरकार प्रधानमंत्री के लिये एक स्वप्न महल की तामीर करा रही है। अस्पतालों में ऑक्सीजन पहुंचने की समय सीमा हाईकोर्ट औऱ सुप्रीम कोर्ट तय कर रहे है। ऐसी मौतों को अदालतें नरसंहार कह रही हैं। कोई दिन ऐसा नही जबकि सरकार को अदालत से फटकार न मिलती हो, पर इन सब बेशर्मी और बेहयाई के बीच दिल्ली में इस ताबूतनुमा स्थापत्य का बनना जारी है।
कोरोना की दूसरी लहर के शिखर पर पहुंचने के बीच यह खबर आ रही है कि तीसरी लहर आने वाली है, जो और भी घातक होगी। उससे निपटने के लिये सरकार ने क्या योजना बनाई है, यह सवाल सुप्रीम कोर्ट लगातार सरकार से पूछ रहा है। सरकार बैठक करती है कोरोना आपदा प्रबंधन के बारे में और निर्णय लेती है आईडीबीआई बैंक के बेचने का। इस मौत के दारुण दृश्यों और थोक में जलती चिताओं के बीच सरकार ने फिलहाल, प्रधानमंत्री के नए महल के बनकर तैयार होने की मीयाद तय कर चुकी है, और उसे दिसम्बर 2022 तक बन जाना है। तीसरी लहर के बारे में क्या प्रबन्ध किये गए हैं, फिलहाल यह अभी पता नही है।

2020 में जब हज़ारो लोग सड़क पर घिसटते अपने घरों को जा रहे थे तो सॉलिसिटर जनरल सुप्रीम कोर्ट में झूठ बोल रहे थे, सड़क पर कोई मजदूर नही है। ‘वह झूठ बोल रहा थे, बड़े सलीके से, मी लॉर्ड, यकीन न करते तो क्या करते।’ वसीम बरेलवी साहब, के इस खूबसूरत शेर में थोड़ी तब्दीली कर इसे मैंने मौज़ू बना दिया है। जब लोग सड़को पर घिसटते हुए, मर रहे थे तब, सरकार प्रधानमंत्री के लिए 8500 करोड़ का विमान खरीद रही थी, जिसकी प्रति घंटा उड़ान का खर्च करीब 1 करोड़ 30 लाख रुपये पड़ता है। बेहद सुरक्षित यह उड़ता हुआ महल, सड़क पर मरते लोगो को तो देख नही पायेगा, पर वह उड़ेगा तो इसी धरती से और उतरेगा भी इसी धरती पर, जो पिछले डेढ़ साल से कोरोना से बेहाल है और नोटबन्दी के बाद से अपनी आर्थिक दुश्वारियां झेल रही है।

खबर है कि, प्रधानमंत्री और उपराष्ट्रपति के आवास, दिसंबर 2022 तक बनकर तैयार हो जाएगें। दिल्ली का इतिहास अनेक बेरहम घटनाओं से भी भरा पड़ा है। आज दिल्ली में इस महामारी से लॉक डाउन है। लोग पागलों की तरह अस्पतालों की बदइंतजामी से जूझ रहे हैं। पर सरकार के सामने प्राथमिकता, न तो जनता है, न जनस्वास्थ्य, न ऑक्सीजन है, न दवाएं, न बेड, न वैक्सीनशन पर सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक कार्य है सेंट्रल विस्टा का निर्माण, जिसे ‘जरूरी सेवाओं’ में शामिल किया गया है, ताकि लोग मरें या जीएं, पर यह प्रोजेक्ट बनता रहे, ताकि समय पर यह प्रोजेक्ट पूरा हो सके।

कोरोना से जूझ रहे भारत के लिए आ रही विदेशी मदद का प्रबंधन, रेडक्रास सोसायटी को सौंप देना चाहिए, ऐसा विदेशी मदद के जानकार लोगों का कहना है। विदेशों से आई तीन सौ टन मेडिकल मदद पांच दिन से दिल्ली एयरपोर्ट पर सरकारी औपचारिकताएं पूरी होने का इंतजार कर रही है। रोज ऑक्सीजन और दवाओं की कमी से लोगों की जान जाने के बावजूद सरकार को फिक्र नहीं है कि विदेशों से भेजे गए 5500 ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर्स, 3200 ऑक्सीजन सिलेंडर और सवा लाख से ज्यादा रेमडेसिविर इंजेक्शन जल्द से जल्द मरीजों तक पहुंचे। विदेशों ने भारत को इमरजेंसी मेडिकल मदद के रूप में पच्चीस हवाई जहाजों के जरिये ये सामान भेजा है, लेकिन केंद्र सरकार पांच दिन से इसे दिल्ली एयरपोर्ट के गोदामों में रख कर बेफिक्र हो चुकी है। केंद्र सरकार को जिन देशों ने मदद भेजी है, इसमें से ज्यादातर ने इसे रेडक्रास के जरिये राज्यों को भेजने को कहा था।

नियम के मुताबिक केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को सिर्फ मैनेजर की भूमिका निभाते हुए सारी मेडिकल सामग्री, राज्यों तक पहुंचाने में मदद करना है। लेकिन आज छ दिन बाद भी यह सारी मेडिकल मदद दिल्ली एयरपोर्ट के गोदामों से बाहर नहीं निकल पाई है। सिर्फ फ्रांस से आए छह ऑक्सीजन प्लाट ही दिल्ली सरकार को मिले हैं, जिन्हें लगाए जाने का आदेश दिया गया है। केंद्र के इसी रवैये को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट ने उसे कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि दिल्ली के मौजूदा हालात पर आप अंधे बन सकते हैं, मगर हम नहीं वादा करने के बाद भी केंद्र दिल्ली को उसकी मांग मुताबिक ऑक्सीजन सप्लाय नहीं कर रहा है। ऑक्सीजन और दवाओं की कमी से दिल्ली समेत पूरे देश में मौतें हो रही है।
राज्य सरकारों को जानकारी नहीं है कि, उस इमरजेंसी मदद का स्टेटस क्या है, इस पर भी कोई रिपोर्ट नहीं है। स्कॉल डाट-इन’ और ‘द हिंदू’ को रिपोर्ट के अनुसार, अभी केंद्र सरकार के अधिकृत मंत्री राज्य से प्राप्त अनुरोधों के आधार पर सहायता की सूची तैयार कर रहे हैं। सोमवार को स्क्रॉल ने राज्यों के अफसरों से बात कर विदेशी मदद की जानकारी ली थी ।सभी अफसरों का जवाब यही था कि अभी तक इस मामले में केंद्र सरकार से उन्हें कोई जानकारी नहीं मिली है। पंजाब, तमिलनाडु, उड़ीसा, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल समेत कई राज्य विदेशी मदद की जानकारी से बेखबर है। इंडियन रेडक्रास सोसायटी को भी केंद्र सरकार ने इस मामले में कोई जानकारी नहीं दी है। यह स्थिति 6 मई तक की है।

जब देश, गरीब और साधनहीन था, तब देश भर में सघन और निःशुल्क टीकाकरण के कार्यक्रम, गांव गांव जाकर पूरे किए गए। अब उसी टीके की तीन तीन कीमतें रखी गयीं हैं। सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया का मालिक अदार पूनावाला, सब समेट कर लंदन भाग गया। वह अब ब्रिटेन में ही टीका बनाएगा औऱ इससे ब्रिटेन के ही लोगो को रोजगार मिलेगा। सरकार ने उसे वाय श्रेणी सुरक्षा भी दी, फिर भी वह कहता है कि उसे भारत मे असरदार लोगो से अपनी जान का खतरा है। सरकार ने, ₹ 35,000 करोड़ टीकाकरण के लिये, बजट में रखे हैं, पर यह रकम अपर्याप्त बताई जा रही है। क्या उस बजट मे अनावश्यक रूप से बन रहे सेंट्रल विस्टा के बजट का ₹ 20,000 करोड़ डाइवर्ट कर के प्राथमिकता के आधार पर जनता का निःशुल्क टीकाकरण नहीं किया जा सकता है ? पैसा तो पीएम केयर्स में भी है। वह धन किस दिन काम आएगा ?

सत्तारूढ़ दल के सांसदों के मन मे क्या यह सवाल बिल्कुल भी नही उठता कि, जब जनता एक घातक महामारी से मर रही है तो, लाशों के ढेर पर ऐसी ऐय्याशी की क्या आवश्यकता है। इस महल और प्रोजेक्ट में लगने वाला एक एक पैसा, जनता द्वारा दिये गए टैक्स का पैसा है।आज जब लोग सांस लेने के लिये बेहाल है तो, सेंट्रल विस्टा जैसा अव्यवहारिक, अमानुषिक और अश्लील कोई और प्रोजेक्ट नहीं हो सकता। जिस देश में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं और मदद के लिए उसे दुनियाभर के सामने हांथ फैलाना पड़ रहा है, उस देश में एक निर्मम और सनकी शासक द्वारा 20 हज़ार करोड़ रुपये अपनी हठ पर उड़ा देना, राष्ट्र के प्रति एक अक्षम्य अपराध है। इस धन का उपयोग तो आज इस आपदा से मर रहे लोगो को बचाने के लिये किया जाना चाहिए। शासन और लोककल्याणकारी राज्य की क्या प्राथमिकताएं होंगी इसे, एक आदमी की सनक तय करेगी या जनता के प्रतिनिधि बस क्लीव बन कर उस सनक के पक्ष मे दुंदुभिवादन करते रहेंगे ?

( विजय शंकर सिंह )