इतिहास में दुष्प्रचार और झूठ का तड़का

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इतिहास के साथ दुष्प्रचार और गलतबयानी एक आम बात रही है। सत्तारूढ़ शासक अक्सर अपने विकृत और विद्रूप अतीत को छुपाना चाहते है और अपने बेहतर चेहरे को जनता के सामने लाना चाहते है। इतिहास में वे बेहतर शासक और व्यक्ति के रूप मे याद किये जांय, यह उन सबकी दिली इच्छा होती है। संघ या आज़ादी के आंदोलन में भाग न लेने और अंग्रेजों के साथ बने रहने वाले तत्व जब देशभक्ति और राष्ट्रवाद की बड़ी बडी बातें करते हैं, और खुद को परम देशभक्त दिखाने की एक मिथ्या दौड़ में शामिल हो जाते हैं तो, उन्हें लगता है कि अतीत तो उनके वर्तमान की तुलना में बेहद विपरीत रहा है। तब वे अतीत की महत्वपूर्ण घटनाओं में कुछ को सुपरइम्पोज कर के देखते हैं और अपने समर्थकों को वैसा ही दिखाना भी चाहते हैं। वे अपनी देशभक्ति को, अतीत के स्वाधीनता संग्राम में प्रचार से दूर रहने वाले सामान्य और असली देशभक्त के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे बार बार यह प्रमाणित करने की ऊर्जा में लगे रहते हैं कि, वे देश की मुख्य धारा से अलग नहीं थे। लेकिन, इन सब के लिये, वह एक नया इतिहास नहीं रचते हैं, बल्कि लोकप्रिय ऐतिहासिक घटनाओं में कही न कहीं से शामिल होने की जुगत में लग जाते हैं। वे इतिहास की धारा में शामिल हो जाते हैं, पर इतिहास के उक्त कालखंड में, अपनी भूमिका के कारण अलग ही पहचाने जाते हैं। मैं इसे जुगाड़ का इतिहास लेखन या लेपन कहता हूं।

आजकल ढाका में दिया गया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक बयान बेहद चर्चा में है कि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बांग्लादेश की आज़ादी के लिये जब वे 20 – 22 वर्ष के थे तो, उन्होंने सत्याग्रह किया था। यह रहस्योद्घाटन पीएमओ की एक ट्वीट से हुआ है। न्यूज 24 की खबर के अनुसार वे इस आंदोलन में जेल भी गए थे। चाय बेचने, मगरमच्छ पकड़ने, 35 साल तक भीख मांगने, एंटायर पोलिटिकल साइंस से पोस्ट ग्रेजुएशन करने, हिमालय में सन्यास लेने की निजी घटनाओं के बाद, आन्दोलनजीविता की राह पर उनका कदम उठना, एक नई जानकारी है।

समकालीन इतिहास के अध्येताओं को प्रधानमंत्री के बांग्लादेश की आज़ादी में किए गए योगदान पर शोध करना चाहिए क्योंकि, बांग्लादेश की आज़ादी से जुड़ी किताबो में इस तथ्य का उल्लेख नहीं मिलता है। नरेंद्र मोदी के ऊपर लिखे गए अनेक पुस्तकों में भी इस घटना का उल्लेख नहीं मिलता है। यह शोध इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि तब के जनसंघ के बड़े नेताओं, अटल जी और आडवाणी जी द्वारा बांग्ला मुक्ति अभियान के दौरान कोई सत्याग्रह आयोजित किया भी गया था या नही, इसकी जानकारी किसी को हो तो बताएं और यह भी जानकारी हो तो बता दें कि, यह महानुभाव किस सत्याग्रह में मुब्तिला थे ? हालांकि अगस्त 1971 में अटल जी के नेतृत्व में, बांग्लादेश को मान्यता देने की मांग के लिये एक प्रदर्शन आयोजित करने का उल्लेख ज़रूर मिलता है। पर उसमे नरेंद्र मोदी की क्या भूमिका थी, यह पता नहीं है। पर अब कहा जा रहा है कि, वे उस प्रदर्शन में शामिल थे। हो सकता है, यह सच भी हो।

इसी प्रकार, व्हाट्सएप्प पर एक किताब का पन्ना बहुत चक्कर खा रहा है, जिंसमे शहीद ए आज़म भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद की भेंट कराने में, वीडी सावरकर की भूमिका की बात कही गयी है। पहले उक्त पन्ने में जो लिखा है, पहले उसे पढिये,

” दोनों की बातें चल रही थीं, तभी वहां सरदार भगत सिंह पधारे। उनका गोरा-लंबा चेहरा, मुंह पर तनी हुई छोटी मूंछे, सिर पर हैट और शर्ट का कॉलर खुला। अपने इस रंग रूप में वे बेहद सुन्दर लग रहे थे। उन्होंने सावरकर जी से नमस्कार किया।

“तुम सही समय पर आए हो भगत सिंह।” सावरकर ने कहा

“आज्ञा दीजिये गुरुजी” भगत सिंह ने कहा।

“क्या आज्ञा दें? पहले तुम इनसे मिलो। इन्हें लोग चन्द्रशेखर आजाद के नाम से जानते हैं।” सावरकर ने उन दोनों का एक दूसरे से परिचय कराया। दोनों भावविभोर होकर, एक दूसरे के गले लग गए । दोनों आज पहली बार मिले थे।

आज आजाद को बिस्मिल की फांसी से बड़ी निराशा हो रही है। इसलिए उनके साथ मिलकर तुम संगठन का कार्य आगे बढ़ाओ।” सावरकर ने भगत सिंह से कहा।”

दोनो की ही बातें का मतलब यह कि, वीडी सावरकर और चंद्रशेखर आजाद की आपस मे बात चल रही थी। दोनों की बातें, राम प्रसाद बिस्मिल की फांसी, जो काकोरी कांड के नायक थे, के संदर्भ में चल रही थीं। तभी भगत सिंह वहां आते है और वे सावरकर को गुरु जी कह कर के संबोधित करते हैं, और वहीं भगत सिंह की आज़ाद से मुलाक़ात होती है।

अब भगत सिंह और आज़ाद की मुलाक़ात और काकोरी कांड की क्रोनोलॉजी और तथ्य देखें।

9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड हुआ था और उसमे निम्न क्रांतिकारी शामिल थे। चंद्रशेखर आज़ाद, राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफाक उल्ला खाँ, योगेशचन्द्र चटर्जी, प्रेमकृष्ण खन्ना, मुकुन्दी लाल, विष्णुशरण दुब्लिश, सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य, रामकृष्ण खत्री, मन्मथनाथ गुप्त, राजकुमार सिन्हा, ठाकुर रोशान सिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिडी, गोविन्दचरण कार, रामदुलारे त्रिवेदी, रामनाथ पाण्डेय, शचीन्द्रनाथ सान्याल, भूपेन्द्रनाथ सान्याल, प्रणवेश कुमार चटर्जी। 1927 में, 19 दिसंबर को राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दे दी गयी। 10 दिसंबर 1927 को राजेन्द नाथ लाहिड़ी और अशफाक उल्ला खान को फांसी दी जा चुकी थी। 1925 से 1927 तक इस मुकदमे का ट्रायल चला और प्रिवी काउंसिल तक अपील हुयी, पर इस पूरे घटनाक्रम में वीडी सावरकर का नाम तक नहीं आया है।
कानपुर ही वो शहर था जहां पर भगत सिंह की मुलाकात चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, फणींद्रनाथ घोष, बिजॉय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा और यशपाल जैसे क्रांतिकारियों से हुई थी। कानपुर तब अंग्रेजी शासन के खिलाफ आंदोलनों का एक केंद्र बन चुका था। भगत सिंह के जीवन में कानपुर का बड़ा योगदान रहा है। अगर कहा जाए कि इस शहर ने उनके विचारों को एक नई दिशा दी तो यह कहना गलत नहीं होगा। वे इस शहर में एक पत्रकार के रूप में रहे, और इसी भूमिका ने उनके चिंतन पक्ष को एक धार दी। भगत सिंह सन् 1924 में पहली बार, महज 17 साल की उम्र में, कानपुर आए थे। एक रोचक किस्सा यह भी है कि, भगत सिंह के परिवार वाले उनकी शादी कराना चाहते थे। भगत सिंह कहते थे कि ‘जब तक उनका देश गुलाम है, वो शादी नहीं कर सकते हैं।’ भगत सिंह के शब्‍द थे, ‘मेरी दुल्‍हन तो आजादी है और वह सिर्फ मरकर ही मिलेगी.’

कानपुर में जहां एक तरफ गांधीवादी विचारधारा के लोग मौजूद थे तो दूसरी तरफ क्रांतिकारी सोच रखने वाले भी मौजूद थे। कम्युनिस्ट आंदोलन की भी यहां मौजूदगी थी। इन्ही में से एक थे पत्रकारिता के पुरोधा, गणेश शंकर विद्यार्थी। गणेश शंकर विद्यार्थी तब कानपुर से ‘प्रताप’ अखबार निकालते थे। भगत सिंह उनके संपर्क में आये। भगत सिंह ने करीब लगभग ढाई वर्ष तक गणेश शंकर विद्यार्थी के अखबार, ‘प्रताप’ में काम किया। वे बलवंत सिंह के नाम से अखबार में अपना नियमित कॉलम लिखते थे। उनके लेेेख अक्‍सर युवाओं को आजादी की लड़ाई के लिए प्रेरणा देने वाले होते थे। कहते हैं कि, कानपुर के फीलखाना स्थित प्रताप के प्रिटिंग प्रेस के अलावा मुहल्ला रामनारायण बाजार में भी वह रहे थे। कानपुर में ही उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, फणींद्रनाथ घोष, बिजॉय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा और यशपाल जैसे क्रांतिकारियों से हुई। गणेश शंकर विद्यार्थी ने ही भगत सिंह की मुलाकात चंद्रशेखर आजाद से कराई थी। इस संदर्भ में भी सावरकर का उल्लेख नहीं मिलता है।

भगत सिंह के सहयोगियों में से, शिव वर्मा जो 1996 तक जीवित रहे और उनसे मुझे भी मिलने का सौभाग्य हुआ है, ने भी सावरकर से भगत सिंह की मुलाक़ात का कोई जिक्र नहीं किया है। मन्मथनाथ गुप्त ने तो, क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास लिखा है पर उसमें भी ऐसा कोई उल्लेख नहीं है। यशपाल ने अपने सिंहावलोकन में आज़ाद और सावरकर की एक मुलाक़ात का ज़रूर उल्लेख किया है, जिंसमे सावरकर, आज़ाद को एक पिस्तौल देने का वादा इस शर्त पर करते हैं कि, वे एमए जिन्ना की हत्या कर दें। आज़ाद, सावरकर को झिड़क देते हैं और यह कहते हैं कि, वे क्रांतिकारी हैं, कोई भाड़े के हत्यारे नही है। यदि भगत सिंह और आज़ाद की मुलाकात में, सावरकर की कोई भूमिका होती तो निश्चय ही क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों ने उल्लेख किया होता।

अगर इतिहास को एक तथ्यान्वेषी की भूमिका से न पढ़ा जाय तो ऐसी बहुत सी क्षेपक के रूप में लिखी गयी घटनाएं अक्सर न केवल गुमराह कर देती हैं, बल्कि पाठक की ऐतिहासिक सोच और दिशा ही बदल देती हैं। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि, हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और मुस्लिम लीग जैसे संगठन, न केवल, इन क्रांतिकारियों के आदर्शों से दूर रहते थे बल्कि इनकी फांसी पर भी वे चुप रहे। पर एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि इन तीनों सांप्रदायिक संगठनों में से आरएसएस, जो अंग्रेजों के खिलाफ हुए उस पूरे संघर्ष के दौरान, खामोश बना रहा, पिछले कुछ समय से ऐसा साहित्य सामने ला रहा है, जो दावा करता है कि, आजादी की लड़ाई के दौर में उनका इन क्रांतिकारियों से जुड़ाव था। एनडीए के शासन काल में जब संघ के स्वयंसेवक, अटल बिहारी वाजपेयी, प्रधानमंत्री थे, तो एक आश्चर्यजनक दावा किया गया कि, संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार 1925 में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु से मिले थे और इन क्रांतिकारियों की बैठकों में भी भाग लिया करते थे और राजगुरु जब सांडर्स की हत्या के बाद भूमिगत हुए थे तब उन्हें आश्रय भी दिया था। (देखें- डॉ केशव बलिराम हेडगेवार : राकेश सिन्हा, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, पेज- 160)

सच तो यह है कि, संघ ने भगत सिंह की आकर्षित हो रहे युवा स्वयंसेवकों को स्वाधीनता संग्राम से जुड़ने के लिये रोका था। आजकल आरएसएस और उससे जुड़े संगठन भगत सिंह और तमाम दूसरे क्रांतिकारियों का नाम बड़े ज़ोर-शोर से लेता है। लेकिन हक़ीक़त ये है कि आज़ादी की यह क्रांतिकारी धारा जिस भारत का सपना देखती थी, आरएसएस उससे बिलकुल उलट सपना देखता है। भगत सिंह मज़दूरों का समाजवादी राज स्थापित करना चाहते थे और पक्के नास्तिक थे। आरएसएस के संस्थापक डॉ.हेडगवार ने उस समय स्वयंसवेकों को भगत सिंह के प्रभाव से बचाने के लिए काफ़ी प्रयास किया। यही नहीं, आगे चल कर दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने भी भगत सिंह के आंदोलन की निंदा की।

मीडियाविजिल से लिया गया, यह महत्वपूर्ण अंश पढिये

“जब भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई थी, तब हम कुछ दोस्त इतने उत्साहित थे कि हमने साथ में कसम ली थी कि हम भी कुछ खतरनाक करेंगे और ऐसा करने के लिए घर से भागने का फैसला भी ले लिया था. पर ऐसे डॉक्टर जी (हेडगेवार) को बताए बिना घर से भागना हमें ठीक नहीं लग रहा था तो हमने डॉक्टर जी को अपने निर्णय से अवगत कराने की सोची और उन्हें यह बताने की जिम्मेदारी दोस्तों ने मुझे सौंपी. हम साथ में डॉक्टर जी के पास पहुंचे और बहुत साहस के साथ मैंने अपने विचार उनके सामने रखने शुरू किए. ये जानने के बाद इस योजना को रद्द करने और हमें संघ के काम की श्रेष्ठता बताने के लिए डॉक्टर जी ने हमारे साथ एक मीटिंग की. ये मीटिंग सात दिनों तक हुई और ये रात में भी दस बजे से तीन बजे तक हुआ करती थी. डॉक्टर जी के शानदार विचारों और बहुमूल्य नेतृत्व ने हमारे विचारों और जीवन के आदर्शों में आधारभूत परिवर्तन किया. उस दिन से हमने ऐसे बिना सोचे-समझे योजनाएं बनाना बंद कर दीं. हमारे जीवन को नई दिशा मिली थी और हमने अपना दिमाग संघ के कामों में लगा दिया.” ( मधुकर दत्तात्रेय देवरस, संघ के तीसरे प्रमुख। स्मृतिकण- परम पूज्य डॉ. हेडगेवार के जीवन की विभिन्न घटनाओं का संकलन, आरएसएस प्रकाशन विभाग, नागपुर, 1962, पेज- 47-48)

यही क्रम सुभाष बाबू से भी खुद को जोड़ने की लालसा में दिखता है। 2014 के बाद नेताजी से जुड़ी फाइलें खोलने की कवायद शुरू हुयी और उन क्लासिफाइड दस्तावेज में यह सब ढूंढ़ने की कोशिश की गयी कि, नेहरू और सुभाष के रिश्ते बेहद खराब थे। यहां तक कहा गया कि नेता जी की मृत्यु में नेहरू का हांथ है। नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने के लिये सुभाष को गायब करा दिया। पर इन सब दुष्प्रचारों का उत्तर तो सुभाष बाबू ने आज़ाद हिंद फौज की तीन ब्रिगेड के नाम गांधी, नेहरू और आज़ाद के नाम पर रख कर दे दिया। सुभाष बाबू की आत्मकथा जो अधूरी रह गयी है, और जिसका उल्लेख बार बार सौगत रॉय द्वारा लिखी किताब, हिज मैजेस्टी ओप्पोनेंट, में किया गया है, में पढ़ कर यह जाना जा सकता है कि नेहरू और सुभाष के बीच कैसे सम्बंध थे। नेताजी सुभाष की फाइल्स में जब कुछ ऐसा नही मिला, जिससे आरएसएस के नेहरू के प्रति सोच की पुष्टि होती हो तो, उसे फिर बस्ता ए खामोशी में डाल दिया गया।

अब एक हाल का ही प्रकरण पढ़ लें। 23 जनवरी 2021 को कोलकाता में नेताजी सुभाष की जयंती मनाई जा रही थी। मेरे एक मित्र भी उस आयोजन में बतौर विशिष्ट मेहमान शिरकत कर रहे थे। उस आयोजन में उद्घोषक ने नेता जी के देश से जियाउद्दीन खान का वेश धारण कर के भाग जाने का उल्लेख किया और एक पुछल्ला भी जोड़ दिया कि, ” ऐसा कहा जाता है कि सावरकर ने नेता जी को देश के बाहर जाने और आईएनए के गठन का सुझाव दिया था। ” इस आयोजन में प्रधानमंत्री भी मुख्य अतिथि के रूप में विराजमान थे और इसी आयोजन में ममता बनर्जी को, जय श्रीराम के नारे के साथ हूट किया गया था तो वे, सभा छोड़ कर चली गयी थीं।

इतिहास में ऐसे झूठ जानबूझकर इंजेक्ट किये जाते हैं। यह एक प्रकार से इतिहास-ज्ञान की संवेदनशीलता के टेस्ट के रूप में, दुष्प्रचारवादी अक्सर करते रहते हैं। ऐसे झूठ गोएबल्स के सिद्धान पर प्लांट किये जाते हैं। ऐसी गलताबयानियाँ, प्राचीन इतिहास और कुछ हद तक मध्ययुगीन इतिहास के क्षेत्र में तो अमूमन चल जाती हैं, क्योंकि वहां इतिहास लेखन की सामग्री का अभाव, और उनकी प्रमाणिकता पर थोड़ा बहुत संशय रहता है। अतः जैन दर्शन के स्याद्वाद की तरह यह इंजेक्टेड झूठ थोड़ा बहुत निभ भी जाता है।

पर आधुनिक इतिहास और विशेषकर स्वाधीनता संग्राम के इतिहास मे यह सब झूठ बिल्कुल नहीं निभ पाता है, क्योंकि इस कालखंड के बारे में मुद्रित और लिखित सामग्री इतनी मात्रा में उपलब्ध है कि झूठ कितनी भी खूबसूरती से गढ़ा गया हो, वह अयां हो ही जाता है। लगभग सभी बड़े नेताओं ने अपने अपने संस्मरण लिखे हैं। अखबारों की फाइलों में सारी घटनाओं का उल्लेख है। सरकार के अपने क्लासिफाइड औऱ खुले दस्तावेज हैं। कोई भी अनुसन्धितसु, इन सबका अध्ययन कर के अपने निष्कर्ष को निकाल सकता है।

नेताजी सुभाष और सावरकर दोनो ही राजनीति, राजनीतिक विचारधारा, स्वाधीनता संग्राम और राजनीति में धर्म के घालमेल के मुद्दों पर, विपरीत ध्रुवों पर स्थित है। 1939 में जब नेताजी कांग्रेस अध्यक्ष बनते हैं तो उन्होंने ने ही पहली बार यह नियम बनाया था कि, साम्प्रदायिक दलों, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा के सदस्य कांग्रेस में नहीं शामिल होंगे। यह दोहरी सदस्यता जैसा नियम था। जो 1979 में जनता पार्टी के समय मधु लिमये ने लागू करने की मांग की थी, जिसके कारण जनसंघ का घड़ा जो 1977 में जनता पार्टी में शामिल हुआ था, वह आरएसएस से अपना सम्बंध तोड़ने को राजी नहीं था और अलग होकर भाजपा बना।

1940 में नेताजी फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन करते हैं, जो वामपंथी विचारधारा पर आधारित होती है। फॉरवर्ड ब्लॉक एक राजनीतिक दल के रुप में अब भी है और वह वाम मोर्चा के एक घटक दल के रूप में, आज भी है। जब तक नेताजी, देश से बाहर नहीं निकल जाते हैं, तब तक वे हिन्दू महासभा के डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जमकर बंगाल में विरोध करते हैं। वीडी सावरकर, 1937 से 43 तक हिन्दू महासभा के अध्यक्ष रहते हैं। वे अंग्रेजों के पेंशनयाफ्ता थे। भारत छोड़ो आंदोलन के विरोधी और जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत के हमख़याल बने रहते हैं। कैसे इस बात पर यक़ीन कर लिया जाय कि, सावरकर ने नेता जी को बाहर जानें की सलाह दी थी ?

ऐसे झूठ जानबूझकर कर कई सालों से इंजेक्ट किये जा रहे है। एक झूठ तो लम्बे समय से जवाहरलाल नेहरू की वंशावली पर फैलाया जा रहा है कि, वे किसी गयासुद्दीन के खानदान के हैं। गांधी नेहरू का चरित्र प्रमाण पत्र सबसे अधिक यही आरएसएस जारी करता है। यह एक प्रकार की हीनभावना है, न कि महान स्वाधीनता संग्राम के समर में भाग न लेने का प्रायश्चित। इतिहास का अध्ययन एकांगी नहीं हो सकता है। हर घटना ही बहुआयामी होती है, उसे जिधर से भी देखियेगा वह अलग रूप से दिखेगी। हम एक प्रकार से गोएबेलिज़्म के युग मे हैं। फर्जी स्क्रीनशॉट, अप्रमाणित लिंक के ढेर में से सच ढूंढ़ना थोड़ा श्रमसाध्य तो है, पर बहुत मुश्किल भी नहीं है।

( विजय शंकर सिंह )