0

अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद होने वाले पहले शासक थे टीपू सुल्तान

Share

भारतीय इतिहास के महान योद्धा टीपू सुल्तान की 4 मई को पुण्यतिथि है. उनके पिता हैदर अली भी एक प्रसिद्ध योद्धा थे. पिता की मृत्यु के बाद पुत्र टीपू सुल्तान ने मैसूर सेना की कमान को संभाला था, जो अपनी पिता की ही भांति योग्य एवं पराक्रमी था. टीपू को अपनी वीरता के कारण ही ‘शेर-ए-मैसूर’ का ख़िताब अपने पिता से प्राप्त हुआ था.
कई बार अंग्रेज़ों के छक्के छुड़ा देने वाले टीपू सुल्तान को भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं महान् वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने विश्व का सबसे पहला रॉकेट अविष्कारक बताया था.

जीवन परिचय

टीपू सुल्तान का जन्म मैसूर के सुल्तान हैदर अली के घर 20 नवम्बर, 1750 को ‘देवनहल्ली’, वर्तमान में कर्नाटक का कोलार ज़िला में हुआ था.टीपू सुल्तान का पूरा नाम फ़तेह अली टीपू था. वह बड़ा वीर, पढ़ने-लिखने में तेज तथा संगीत और स्थापत्य का प्रेमी था. उसके पिता ने दक्षिण में अपनी शक्ति का विस्तार आरंभ किया था. इस कारण अंग्रेज़ों के साथ-साथ निजाम और मराठे भी उसके शत्रु बन गए थे.
टीपू ने 18 वर्ष की उम्र में अंग्रेज़ों के विरुद्ध पहला युद्ध जीता था.अंग्रेज़ संधि करने के लिए मजबूर हो गए. लेकिन पांच वर्ष बाद ही संधि को तोड़कर निजाम और मराठों को साथ लेकर अंग्रेज़ों ने फिर आक्रमण कर दिया. टीपू सुल्तान ने अरब, काबुल, फ्रांस आदि देशों में अपने दूत भेजकर उनसे सहायता मांगी, पर सफलता नहीं मिली.अंग्रेज़ों को इन कार्रवाइयों का पता था.अपने इस विकट शत्रु को बदनाम करने के लिए अंग्रेज़ इतिहासकारों ने इसे धर्मांध बताया है.लेकिन वह बड़ा सहिष्णु राज्याध्यक्ष था. हालांकि भारतीय शासकों ने उसका साथ नहीं दिया, पर उसने किसी भी भारतीय शासक के विरुद्ध, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, अंग्रेज़ों से गठबंधन नहीं किया.

बेहतर रणनीतिकार

टीपू सुल्तान काफ़ी बहादुर होने के साथ ही दिमागी सूझबूझ से रणनीति बनाने में भी बेहद माहिर था. अपने शासनकाल में भारत में बढ़ते ईस्ट इंडिया कंपनी के साम्राज्य के सामने वह कभी नहीं झुका और उसने अंग्रेज़ों से जमकर लोहा लिया.मैसूर की दूसरी लड़ाई में अंग्रेज़ों को खदेड़ने में उसने अपने पिता हैदर अली की काफ़ी मदद की. उसने अपनी बहादुरी से जहाँ कई बार अंग्रेज़ों को पटखनी दी, वहीं निज़ामों को भी कई मौकों पर धूल चटाई. अपनी हार से बौखलाए हैदराबाद के निज़ाम ने टीपू सुल्तान से गद्दारी की और अंग्रेज़ों से मिल गया.

संधि

मैसूर की तीसरी लड़ाई में भी जब अंग्रेज़ टीपू को नहीं हरा पाए तो उन्होंने मैसूर के इस शेर से ‘मंगलोर की संधि’ नाम से एक समझौता कर लिया. संधि की शर्तों के अनुसार दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए प्रदेशों को वापस कर दिया.टीपू ने अंग्रेज़ बंदियों को भी रिहा कर दिया.टीपू के लिए यह संधि उसकी उत्कृष्ट कूटनीतिक सफलता थी.उसने अंग्रेज़ों से अलग से एक संधि कर मराठों की सर्वोच्चता को अस्वीकार कर दिया.इस संधि से गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स असहमत था.उसने संधि के बाद कहा- “यह लॉर्ड मैकार्टनी कैसा आदमी है.मैं अभी भी विश्वास करता हूँ कि वह संधि के बावजूद कर्नाटक को खो डालेगा.”

अंग्रेजों की धोखेबाजी

पालक्काड क़िला टीपू सुल्तान का केरल में शक्ति-दुर्ग था, जहाँ से वह ब्रिटिशों के ख़िलाफ़ लड़ता था.इसी तरह सन 1784 में एक युद्ध में कर्नल फुल्लेर्ट के नेतृत्व में ब्रिटिश सैनिकों ने 11 दिन दुर्ग को घेर कर रखा और अपने अधीन कर लिया. बाद में कोझिकोड के सामूतिरि ने क़िले को जीत लिया.1790 में ब्रिटिश सैनिकों ने क़िले पर पुनः अधिकार कर लिया.बंगाल में ‘बक्सर का युद्ध’ को तथा दक्षिण में मैसूर का चौथा युद्ध को जीत कर भारतीय राजनीति पर अंग्रेज़ों ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली.
‘फूट डालो, शासन करो’ की नीति चलाने वाले अंग्रेज़ों ने संधि करने के बाद टीपू से गद्दारी कर डाली. ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदराबाद  निज़ाम के साथ मिलकर चौथी बार टीपू पर ज़बर्दस्त हमला किया और आख़िरकार 4 मई सन् 1799 ई. को मैसूर का शेर श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए शहीद हो गया.
Image result for tipu sultan

मिसाइल मैन

टीपू के बारे में कहा जाता है कि वह दुनिया का पहला मिसाइलमैन था. लंदन के मशहूर साइंस म्यूज़ियम में टीपू के कुछ रॉकेट रखे हैं.ये उन रॉकेट में से थे जिन्हें अंग्रेज़ अपने साथ 18वीं सदी के अंत में ले गए थे.उनके इस रॉकेट की वजह से ही भविष्य में रॉकेट बनाने की नींव रखी थी.
Image result for tipu sultan
असल में टीपू और उनके पिता हैदर अली ने दक्षिण भारत में दबदबे की लड़ाई में अक्सर रॉकेट का इस्तेमाल किया.उन्होंने जिन रॉकेट का इस्तेमाल किया वो बेहद छोटे लेकिन मारक थे. इनमें प्रोपेलेंट को रखने के लिए लोहे की नलियों का इस्तेमाल होता था.ये ट्यूब तलवारों से जुड़ी होती थी.ये रॉकेट करीब दो किलोमीटर तक मार कर सकते थे.

टीपू की तलवार,तोप और राम नाम की अंगूठी

टीपू सुल्तान की तलवार काफी प्रसिद्ध रही है.टीपू की इस तलवार पर रत्नजड़ित बाघ बना हुआ था. बताया जाता हैं कि टीपू की मौत के बाद ये तलवार उसके शव के पास पड़ी मिली थी. टीपू सुल्तान की तलवार का वजन 7 किलो 400 ग्राम है.
टीपू के राज्य में तोपें बेमिसाल हुआ करती थीं.साल 2010 में जब टीपू सुल्तान के शस्त्रागार की नीलाम हुई तो उसमें तलवार और बंदूकों के साथ 3 लाख पाउंड से अधिक में निलाम हुई एक दुर्लभ तोप भी नीलाम की गई थी.इस तोप की लंबाई ढाई मीटर से ज्यादा थी.
Image result for tipu sultan angoothi
टीपू ‘राम’ नाम की अंगूठी पहना करते थे.उनकी मृत्यु के बाद ये अंगूठी अंग्रेजों ने उतार ली थी और फिर इसे अपने साथ ले गए. श्रीरंगपट्टनम में हुई जंग में टीपू की मौत के बाद उनकी राम नाम की खूबसूरत अंगूठी अंग्रेज सेना इंग्लैंड ले गई थी. माना जाता है कि अंग्रेजों ने टीपू की मौत के बाद उनकी अंगुली काटकर ये अंगूठी निकाल ली थी.

धर्मांध नही थे टीपू

टीपू पर धर्मान्ध होने का आरोप लगाया जाता है.गत वर्षों के दौरान कुछ राजनीतिक दल और कुछ अन्य संगठनों द्वारा यह दुष्प्रचार किया जा रहा है.इनका कहना है कि टीपू एक तानाशाह था, जिसने कोडवाओं का कत्लेआम किया, कैथोलिक ईसाईयों का धर्मपरिवर्तन करवाया और उनकी हत्याएं कीं, कई ब्राह्मणों को जबरदस्ती मुसलमान बनाया और अनेक मंदिरों को तोड़ा. यह भी कहा जाता है कि उन्होंने कन्नड़ की बजाए फारसी भाषा को प्रोत्साहन दिया.
वहीं कुछ अन्य लोगों का कहना है कि टीपू एक अत्यंत लोकप्रिय राजा थे और उनकी वीरता के किस्से अब भी नाटकों और लोकगीतों का विषय हैं. वे एकमात्र ऐसे भारतीय राजा थे जो ब्रिटिश शासकों से लड़ते हुए मारे गए. प्रसिद्ध रंगकर्मी गिरीश कर्नाड ने कहा है कि अगर टीपू हिन्दू होते तो उन्हें कर्नाटक में उतने ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता, जितने सम्मान से महाराष्ट्र में शिवाजी को देखा जाता है.
Image result for tipu sultan
टीपू सुल्तान ने कई हिंदू मंदिरों को काफी बेशकीमती भेटें दी थी.थालकोट के मन्दिर में सोने और चांदी के बर्तन है, जिनके शिलालेख बताते हैं कि ये टीपू ने भेंट किए थे.1782 और 1799 के बीच, टीपू सुल्तान ने अपनी जागीर के मन्दिरों को 34 दान के सनद जारी किए. इनमें से कई को चांदी और सोने की थाली के तोहफे पेश किए. ननजनगुड के श्रीकान्तेश्वर मन्दिर में टीपू का दिया हुआ एक रत्न-जड़ित कप है.ननजनगुड के ही ननजुनदेश्वर मन्दिर को टीपू ने एक हरा-सा शिवलिंग भेंट किया था. श्रीरंगपटना के रंगनाथ मन्दिर को टीपू ने सात चांदी के कप और एक रजत कपूर-ज्वालिक पेश करने का भी जिक्र किताबों में मिलता है.
कांची कामकोटि पीठम के शंकराचार्य को लिखे एक पत्र में उन्होंने शंकराचार्य को ‘जगतगुरू’ (विश्व का शिक्षक) कहकर संबोधित किया और उनके मठ को बड़ी राशि दान के रूप में दी.उनके राज में मैसूर में दस दिन तक दशहरा बड़े जोरशोर से मनाया जाता था. ऐसा कहा जाता है कि उनके पिता, मध्य कर्नाटक के चित्रदुर्गा के एक सूफी संत थिप्पेरूद्रस्वामी के अनन्य भक्त थे.
टीपू के महामंत्री एक ब्राह्मण थे जिनका नाम पुरनैया था. उनके कई मंत्री भी ब्राह्मण थे. उन्होंने जो भी गठबंधन किए उसके पीछे धर्म नहीं बल्कि अपनी ताकत में इज़ाफा करने का प्रयास था.
जहां तक कन्नड़ और मराठी के साथ-साथ फारसी भाषा का इस्तेमाल करने की उनकी नीति का प्रश्न है, तो हकीकत यह है कि उस समय भारतीय उपमहाद्वीप में फारसी ही राजदरबारों की भाषा हुआ करती थी.
Related image
टीपू ने मराठाओं और हैदराबाद के निज़ाम से पत्रव्यवहार कर उनसे यह अनुरोध किया था कि वे अंग्रेज़ों का साथ न दें क्योंकि अंग्रेज़, उस क्षेत्र के अन्य राजाओं से बिलकुल भिन्न हैं और यदि उनका राज कायम होता है तो यह पूरे क्षेत्र के लिए एक बड़ी आपदा होगी. उनकी इसी सोच ने उन्हें अंग्रेज़ों के खिलाफ लगातार युद्ध करने की प्रेरणा दी. ऐसे ही एक युद्ध में उन्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा. परंतु वे आज भी कर्नाटक के लोगों की यादों में जिंदा हैं.जनता के बीच उनकी लोकप्रियता के कारण ही वे आज भी कर्नाटक के एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यक्तित्व बने हुए हैं.
टीपू को मुस्लिम कट्टरपंथी के रूप में प्रस्तुत करना अंग्रेजों की सोची समझी रणनीति थी.वे अंग्रेज़ों के खिलाफ युद्ध में सबसे पहले अपनी जान न्यौछावर करने वालों में से थे.भारत में स्वाधीनता आंदोलन, टीपू के बहुत बाद पनपना शुरू हुआ और इसमें आमजनों की भागीदारी थी. टीपू के बलिदान को मान्यता दी जाना ज़रूरी है. आज साम्प्रदायिक विचारधारा के बोलबाले के चलते टीपू जैसे नायकों का दानवीकरण किया जा रहा है. अंग्रेज़ों के खिलाफ युद्ध में टीपू की भूमिका को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता.