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आस्था और अराजक भीड़

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आज़ाद भारत में भीड़ ने पहली घटना को अंजाम 6 दिसंबर 1992 को दिया था। ये इस देश की पहली भीड़ थी जो क़ानून को जूते की नोक पर रखकर आतंक एवं भय का माहौल बनाया था।

6 दिसंबर 1992 को आयोध्या में बाबरी मस्जिद के गुंबद चढ़ी हुई अराजक भीड़


ये अराजक भीड़ जहाँ जहाँ गई वहाँ इंसानियत का गला घोंटती हुई आगे बढ़ी। आज़ाद भारत के इतिहास में इससे ज़्यादा क़त्ल-ए-आम कभी नहीं हुआ था। शहर के शहर लूटे गये, सड़कें ख़ून से लाल हो गई थीं।
लेकिन हुआ क्या? जितने भी लोग इस भीड़ की अगुवाई कर रहे थे वे सब के सब संसदीय प्रणाली में सर्वोच्च पद तक पहुँचे। भारत रत्न से लेकर पद्मविभूषण तक मिला इन्हें।

2002 को गुजरात में हुये दंगे की यह दो तस्वीरें, जैसे उसका प्रतीक बन गई हैं


ये जो भीड़ सड़कों पर इकट्ठा होकर लूट पाट करती है ये भीड़ अचानक नहीं बनती, ये बनाई जाती है। आस्था का सहारा लेकर तमाम बुनियादी मुद्दों को तर्क कर दिया जाता है। यही तो फ़ासीवाद है।
ऐसी ही भीड़ आपको दंगों के वक़्त देखने को मिलती है जब किसी सांप्रदायिक नेता के बहकावे में आकर हज़ारों लोग क़त्ल-ओ-ग़ारत करते हैं, भागलपुर गुजरात से लेकर मुज़फ़्फ़रनगर जैसे सैकड़ों दंगे इसके उदाहरण हैं।

फोटो : अखलाक़ को दादरी में बीफ़ के शक़ में भीड़ ने मार दिया था


यही भीड़ है जो लोगों के घरों में घुसकर उनका फ़्रिज चेक करती है, किसी को गाय के नाम पर मारती है। यही भीड़ अख़लाक़ को मारती है पहलू खान को मारती है तो कभी जुनेद जैसे मासूम बच्चे को।
जब तक इस भीड़ के ख़िलाफ़ देश का बहुसंख्यक वर्ग खुलकर आवाज़ नहीं उठायेगा तब तक इस भीड़ का हौसला बढ़ता रहेगा और एक दिन यही भीड़ किसी को नहीं बख्शेगी।