भारतीय चुनाव आयोग के समक्ष साख का संकट

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कल 20 मई की रात से ही हंगामा मचा हुआ है कि यूपी और बिहार के कुछ जिलों, चंदौली, गाजीपुर, सारण और हरियाणा के फतेहाबाद में ईवीएम से लदे बिना नम्बर वाले ट्रक मतगणना स्थल के पास जहां ईवीएम रखी हुई है देखे गए हैं। शिकायतें हैं कि ईवीएम बदली जा रहीं है। अब हैकिंग संभव नहीं तो स्वैपिंग की जा रही है।
लंबे समय तक चुनाव प्रक्रिया का एक अंग रहे होने के कारण, इन आरोपों पर मुझे अब भी विश्वास नहीं होता है कि ईवीएम बदली जा सकती है। क्योंकि ईवीएम रखने और स्ट्रांग रूम की सुरक्षा के जैसे निर्देश आयोग से आते है उसे देखते हुए इस प्रकार की ईवीएम स्वैपिंग संभव नहीं लगती है ।
ईवीएम का स्ट्रांग रूप किसी कॉलेज या सरकारी भवन का कोई भाग होता है जो मतगणना स्थल के पास ही होता है। अमूमन एक जिले में जितनी विधानसभा होतीं हैं उसी के संख्या के अनुसार उतने ही कमरे विधानसभावार ईवीएम रखने के लिये तय किये जाते हैं। कमरे के फर्श पर मतदान केंद्र के अनुसार, क्रमवार सभी ईवीएम फर्श पर रखी जाती हैं। जिस कमरे में ईवीएम रखी जातीं हैं उसके सभी दरवाजे एक मुख्य दरवाजे को छोड़ कर, रोशनदान और खिड़कियों को लकड़ी के फट्टे से सील कर दिया जाता है। पहले सीसीटीवी कैमरा नहीं लगता है पर अब लगाया जाता है ।
यह सारे कमरे एक ही भवन में एक दूसरे से लगे रहते हैं। स्ट्रांग रूम के केंद्रीय सुरक्षा बल के किसी इकाई की एक कम्पनी लगती है। वही कम्पनी सुरक्षा हेतु संतरी जितने आवश्यक हों लगाती है। इसका अपना स्टैंडिंग आर्डर होता है। संतरी की चेकिंग के लिये भी अफसर होता है। स्थानीय पुलिस वहां नहीं रहती है। वह बाहर कानून व्यवस्था के लिये लगायी जाती है। कमरे में ताला सीलबंद होता है, और वहां एक लॉगबुक भी रखी होती है जिसपर अगर किसी कारण से कमरा खोला जाय तो उस पर रिटर्निंग अफसर या एआरओ के हस्ताक्षर और खुलने एवं पुनः बंद करने का समय अंकित किया जाता है। कमरा केवल मतगणना के ही दिन खोला जाता है। क्योंकि बीच मे कोई ज़रूरत भी नहीं पड़ती है। जिले के मैजिस्ट्रेट और पुलिस अफसर भी जब चेक करते हैं तो उसका उल्लेख लॉग बुक में होता है।
जैसे आजकल ईवीएम बदलने की शिकायतें और चर्चा आम है वैसे पहले मतपेटी बदलने की भी चर्चा और शिकायतें होती थीं। एकबार तो जादुई स्याही की भी अफवाह फैल चुकी है। चुनाव के दौरान अफवाहें बहुत फैलती हैं और वास्तविकता से उसका बहुत कम संबंध होता है। मैं नहीं समझता कि आज सोशल मीडिया के प्रसार के युग मे जहां मिनटों में वीडियो क्लिप्स वायरल हो जाते हैं, कोई जिला मैजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक ईवीएम स्वैपिंग अगर किसी का दबाव भी हो तो करने के लिये राजी होगा।
फिर यह शिकायतें इतनी आम क्यों हो रही हैं ? इसका सबसे बड़ा कारण निर्वाचन आयोग की साख का संकट है। आज आयोग अपनी विश्वसनीयता खो चुका है। यहां तक कि आयोग के ही एक सदस्य ने आयोग की कार्यप्रणाली पर सवाल भी उठा दिया है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त अपने कुछ फैसलों और अपने अतीत के कारण अविश्वसनीय हो चुके हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा आदर्श आचरण संहिता के उल्लंघन के कई मामलों में, एकतरफा क्लीन चिट दे दी। जबकि एक आयुक्त अशोक लवासा उस फैसले से सहमत भी नहीं थे। पर उनका पक्ष उस फाइल पर रखा ही नहीं गया। उन्होंने मुख्य निर्वाचन आयुक्त को विरोधस्वरूप पत्र भी लिखा है।
प्रशासन या संस्थाओं में जब एक काबिल, सख्त और किसी भी राजनीतिक दबाव में न  आने वाला अफसर पूर्वाधिकारी के रूप में नियुक्त हो चुका रहता है तो बाद में जनता, उस विभाग को उसी अफसर की क्षमता, प्रतिष्ठा और साख के रूप में देखती और अपना आकलन करती है। टीएन शेषन और लिंगदोह लगातार एक बाद मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे हैं, जिनकी कार्यप्रणाली से आयोग की साख अपने समय मे शिखर पर थी। उनके बाद आने वाले मुख्य चुनाव आयुक्तों ने उस साख को बहुत कुछ बना कर रखा। लोगो के मन मे वैसे ही सख्त और निष्पक्ष साख आयोग की बनी है और लोगों की आयोग से वैसी ही साख और क्षवि की अपेक्षा है जैसे कभी टीएन शेषन के समय थी।
पर वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त आयोग की साख को बनाकर नहीं रह सके। सरकार के सभी संस्थाओं में बेवजह दखल से यह धारणा भी लोगों में पनपी कि सरकार आयोग से मनचाहा निर्णय करवा सकती है। प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष सहित भाजपा के कुछ बड़े नेताओं के आचार संहिता के उल्लंघन पर भी आयोग की शातिराना चुप्पी रही। चाहे नमो टीवी का मामला हो या अन्य आचार संहिता के उल्लंघन के मामले हों मुख्य निर्वाचन आयुक्त का प्रत्यक्षतः झुकाव सत्तारूढ़ दल की ओर दिखा। यह शायद पहला अवसर होगा जब आयोग की इतनी अधिक शिकायतें हुयी हों और सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा हो।
आज की स्थिति यह है कि आयोग के हर कदम को संशय की नज़र से देखा जा रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि भाजपा के लोग आयोग के बचाव में खुल कर आ जा रहे हैं और भाजपा के कुछ नेता तो यह तक कह चुके हैं कि आयोग तो हमारे हाँथ में है। सरकार का बचाव तो सत्तारूढ़ दल करता ही है और उसे ऐसा करना भी चाहिये, पर जब सत्तारूढ़ दल आयोग के पक्ष में खड़ा नज़र आये तो यही निष्कर्ष स्वाभाविक रूप से निकाला जाएगा कि कहीं न कहीं आयोग की सत्तारूढ़ दल से दुरभिसंधि है।
साख का यह पतन और संकट आयोग को लोगों की नज़रों में लगातार अविश्वसनीय बनाता जा रहा है। सरकार तथा सत्तारूढ़ दल के एक विस्तार के रूप में आज निर्वाचन आयोग की क्षवि बनती जा रही है। अब यह मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुनील अरोड़ा के ऊपर है कि कैसे वे अपनी और अपने संस्थान की साख बचा पाते हैं। फिलहाल तो वायरल हो रही ईवीएम अदला बदली की इन खबरों के बाद पूरे आयोग को एक साथ प्रेस कांफ्रेंस कर के ईवीएम स्वैपिंग के इन आरोपो या अफवाह जो भी कहा जाय उसके बारे में तथ्यों से अवगत कराना चाहिये।

© विजय शंकर सिंह